Lapataa Hoon Mai अपने आप से बातों का एक संग्रह एक कविता लापता हूं मैं दीप जांगड़ा की कविता
लापता हूँ मै हर रोज होती मेरी मुझ से लड़ाई का गवाह हूँ मै जितना सुलझा हूँ उस से उतना जयादा बेपरवाह हूँ मै शायद मेरी गलती से ही आज इतना खपा हूँ मै ढून्ड़ नही पाया खुद को तो क्या लापता हूँ मै लापता हूँ मै मै तो हमेशा से मुझ को मुझमे ही खोजा करता हूँ क्या कहेगा जमाना मुझे इस से मै कहाँ डरता हूँ मै को मुझ से निकालने मे जो हुई वो खता हूँ मै ढून्ड़ नही पाया खुद को तो क्या लापता हूँ मै लापता हूँ मै मेरे साथ अब तो मेरी नींद भी नही है जो है वोही तो सच है फरेब कुछ नही है जिसकी मंजिल नही कोई वो भटकता रासता हूँ मै ढून्ड़ नही पाया खुद को तो क्या लापता हूँ मै लापता हूँ मै पीता रहा हूँ दर्द कभी आँसू गैहरी प्यास मे शायद पा लूँ खुद को हूँ अब भी इसी आस मे डैह चुकी हो जो मंजिल अब तो खासता हूँ मै ढून्ड़ नही पाया खुद को तो क्या लापता हूँ मै लापता हूँ मै जजबातों की भी मेरे अब तो कोई कद्र नही जिन्दा हूँ अभी मै दबा कोई मुरदा कब्र नही अपने इरादों मे आज भी अब भी उडना चाहता हूँ मै ढून्ड़ ...