"तरक्की का राज: रुकावटों का सच और समाधान":"तरक्की क्यों रुक गई: समस्याओं और समाधानों की खोज" Tarakki Kyon Ruk Gai Hai
*********तरक़्क़ी क्यों रुक गई***********
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
सितम देख लूँ ज़ुल्म देख लूँ
और बेअदबी का क़हर भी देख लूँ
ज़ालिमों के दिलों में उबलता
हुआ नफरतों का ज़हर भी देख लूँ
दो पलू की जी लूँ जिंदगी
शौक़ से तो कहूँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
जवान फ़सल के जैसे अपने
खेतों में मैं भी लहराना चाहता हूँ
अपने हिस्से के हक़ों के लिए
मैं हुकुमतों से टकराना चाहता हूँ
बंजर ज़मीनों में पसीना बहा
लूँ तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
अब अपने दर्द का मरहम मैं
ख़ुद ब ख़ुद करने लग जाऊं तो क्या
कभी भूख कभी बारिश से कभी
भाव कर्ज़ से मर जाऊँ तो क्या
किसानों के मर्ज़ की दवा बना
लूँ तो कहूँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
अत्याचारों से आहत क्यों
होती है नारी क्यों क़ैद हौंसले होते हैं
क्यों बेशर्मी की हदें नही
बनती और क्यों तबाह घोंसले होते हैं
क़ानून को थोड़ा ख़ुद आजमा लूँ
तो कहूँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
रगों में बहता है जो नशा
बेपनाह क्या हरियाणा और पंजाब क्या
नस्लें तो ख़त्म होती है ना
ऐसे फ़िर चरस क्या सुल्फा शराब क्या
दो कश मदहोशी साँसों में
मिला लूँ तो कहूँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
बहुत सुना है मैंने के
दहशतगर्दी में जन्नतें मिल जाया करती हैं
कैसी है वो जवानी जो सरहदों
पे जा के पहरा लगाया करती हैं
वतन का सिपाही बन के आऊं तो
कहूँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
राजा की महफ़िल में वफ़ादार
हों सभी ये भी मुमकिन तो नही
प्यादे भी दल ना बदलें
रियासत में कभी ये भी मुमकिन तो नही
सियासत में थोड़ा परचम लहरा
लूँ तो कहूँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
बड़े अदब से कहते फिरतें हैं
हम हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई हैं
पर भूल गए धर्मों की भूल
भुलैया में आख़िर हम भाई भाई हैं
शांति दीप की भव्य लौ जला
लूँ तो कहूँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
बेकारी की मार भी तो खूब
सहते रहते हैं अब आजकल हम
पढ़ लिख कर भी गलियों में
लड़खड़ाते हैं अब आजकल हम
मुठ्ठी भर अपना हूनर आजमा
लूँ तो कहूँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
मैं पढ़ लूँ हर पहलू इस
जमाने का तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
उतर जाऊं बाज़ार में सियासत
के तो कहुँ तरक़्क़ी क्यों रुक गई
Writer: Deep Jangra
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