"अंतर्मन की गहराइयों में: सत्य, अच्छाई और जीवन के विचार" एक कविता के माध्यम से " मैं क्या हूँ" Mai Kya Hoon
मैं क्या हूँ एक इंसान ही ना या कोई और हूँ मैं पता नही जो मुझे दिखता है वो सबको कयूं नही दिखता या दूसरे उसे देख कर अनदेखा कर देते हैं या उन्हे इस बात से कोई मतलब नही के दुनिया में क्या हो रहा है या वो इसिलिये चुप हैं क्युंकि अभी तक उनके साथ ऐसा नही हुआ तो मतलब इस बात से है कि हम कब सुधरने जा रहे हैं इन्ही बातों को यहाँ मेरी इस छोटी सी ये बात दर्शाती है "मैं क्या हूँ" मैं काघज हूँ पर मुझ पर कोई अच्छाई क्यूं नही लिखता क्या हो रहा है मेरे देश में ये सबको क्यूं नही दिखता क्या सबने मून्द ली हैं आंखे अपनी या बस झूट खरीद्ना है जो सच्चा है मेरे मुल्क मै आज वो सच्चा क्यू नही बिकता मैं काघज हूँ पर मुझ पर कोई अच्छाई क्यूं नही लिखता मै क्या हूँ अगर ये सोचूं तो मैं क्या हो सकता हूँ इसका वजूद क्या होगा मेरी अच्छाई ही मेरी है मेरे होने का और सबूत क्या होगा दिन ही कितने हैं मेरे पास के दुनिया के सामने आऊँ मैं एक दिन फूल की तराह मुरझा जाऊँगा जो रोज सवेरे नयी उमन्ग में खिलता है मैं काघज हूँ पर मुझ पर कोई अच्छाई क्यूं नही लिखता कितने ही लोग हैं जिन्हे फिकर है मेरी चंद मेहज ही तो है...